Monday, November 2, 2020

थी रातें भी विरान सी के                                                                                                                                शहर भी सुनशान था                                                                                                                                        ये मुसाफिर को न इल्म थी                                                                                                                            तेरी यादों का एहसान था
इक नज़्म मै कहता रहा                                                                                                                          खामोश रात सुनता रहा                                                                                                                              होगी सहर तेरे दीदार से                                                                                                                             निगाह ख्वाब बुनता रहा
हाँ रह रह के मैं डरा भी था                                                                                                                          तिल तिल कर मरा भी था                                                                                                                              कभी आसमां सा फैल गया                                                                                                                              कभी तिनका सा जरा भी था
के तारे भी ताकते रहें                                                                                                                                      हाँ चाँद भी खामोश था                                                                                                                                  बस इक मैं जागता रहा                                                                                                                              सारा जहाँ बेहोश था
हाँ  पुष की वो रात थी                                                                                                                              पसीनों की बरसात थी                                                                                                                                    थें बूँद बूँद हम पिघल रहें                                                                                                                             बरसों की जो मुलाकात थी
दबे अरमान फूल सा खिलने को                                                                                                                    मन ब्याकुल था तुमसे मिलने को
तुम आये भी ऐसे वक़्त पे, जब                                                                                                                    जान हलक से था, निकलने को
बस धड़कनों का शोर था                                                                                                                          तुम्हारे मिलन से मन बिभोर था
मैं खुद को रोक लेता, मगर
गुजरते वक़्त पे कहाँ जोर था

©इंदर भोले नाथ
बागी बलिया, उत्तर प्रदेश

ऐ इश्क़..................

ऐ इश्क़ तरफ दारी छोड़, मसावात  कर ले
किसी मोड़ पे हम से भी  मुलाकात कर ले

बहुत मेहरबां हुए हो तुम रकीबों पे आजकल
कभी  जायजा  हमारे भी  हालात  कर ले

क्यूँ निगाहें फेर लेता है भरी बज़्म मे हमसे
कभी तो  कद्र  हमारे भी  जज़्बात  कर ले

तुं शौक रखता है,औरों मे कमी निकालने की
कभी  खुद से भी "इंदर"  सवालात  कर ले
©इंदर भोले नाथ

तरफदारी- पक्षपात
मसावात- समानता

Tuesday, October 27, 2020

तो मिले

बुझा दे रूह-ए-तीस्नगी वो बरसात तो मिले                                                                                                           किसी मोड़ पे ज़िंदगी से मुलाकात तो मिले


हाँ शौक़ ये भी है सिलसिला गुफ़्तगू का हो
लेकिन, पहले  किसी से  खयालात तो मिले

महसूस कर ही लेंगे उनकी क़ैद-ए-बेवसी
कभी परिंदों सा हमें भी क़ैद-ए-हयात तो मिले

अभीं शामिल न हो "इंदर" इश्क़-ए-कारवाँ मे तुं
पहले, पहले वाले  दर्द से  निज़ात तो मिले

बुझा दे रूह-ए-तीस्नगी वो बरसात तो मिले
किसी मोड़ पे ज़िंदगी से मुलाकात तो मिले

© इंदर भोले नाथ
बागी बलिया, उत्तर प्रदेश

Monday, July 20, 2020

कविता

कभी  रिमझिम  फुहारों संग
कभी  तेज हुआ बौछारों संग

देखो लौट के वापस घर आया
है   सावन  फिर बहारों संग

गर्मी से राहत है मिली,फिर
बारिश की आहट है मिली

गरज गरज के तड़प तड़प के
फिर फोटो खींच रही बिजली

नदियाँ मे बहते धारों संग
मनमोहक लिये नजारो संग

देखो लौट के वापस घर आया
है   सावन  फिर बहारों संग  

बागों में झूले लगाने लगी
कई ख्वाब आंखों में सजाने लगी

फिर सखियों संग गोरी मिलके
सावन का राग सुनाने लगी

फिर नाव बनाकर यारों संग
रद्दी और अखबारों संग

देखो लौट के वापस घर आया
है   सावन  फिर बहारों संग

मौजों में  रवानी है
बरस रहा जो पानी है

नाच रहा है खेतों में,फिर
खिल उठा दिल किसानी है

सुख समृद्धि और सहारो संग
दुल्हन और कहारों रो संग

देखो लौट के वापस घर आया
है सावन फिर बहारों संग

कीचड़ से सनी है देह
मिट्टी से बहुत है स्नेह

खेल कबड्डी खेल रहे हैं
बरस रहा जमकर है मेह

बचपन के सब यारों संग
खाब लिये हजारों संग

देखो लौट के वापस घर आया
है  सावन फिर बहारों संग

कभी  रिमझिम  फुहारों संग
कभी  तेज हुआ बौछारों संग

देखो लौट के वापस घर आया
है   सावन  फिर बहारों संग

©भोले नाथ

Monday, July 13, 2020

ग़ज़ल

तुम मिले मिलते ही  सांस चलने लगें
इन निगाहों में फिर ख्वाब पलने लगें

फिर हवाएं आदतन तेज चलने लगी
फिर भी तूफानों में आग जलने लगें

रूबरू होकर तुमसे असर यूं हुआ
बर्फ सा आज फिर हम पिघलने लगे

तोड़कर राब्ता वो अज़ीज़ हुआ है मगर
हम निभा कर भी सबको हैं खलने लगें

दिल लगा के खता तो दिल ने की थी
इंतजार में फिर क्यूँ  देह गलने लगें

© इंदर भोले नाथ






Saturday, July 11, 2020

कविता

अब म्यान मे लिपटी हुई मुझे शमशीर रहने दो
कुछ वक़्त के लिए सही मुझे बे-पीर रहने दो

बहोत विभत्स हो चुका हूँ खुद से ही लड़कर मैं
खामखाँ जन्नत कहने वालों मुझे कश्मीर ही रहने दो

अब म्यान मे लिपटी हुई......

हर वक़्त  मेरे जख्म  मुझे  पुकारते  हैं अब
मेरे जन्नत कहाने पर मुझे धिक्कारते हैं अब

मैने जहन्नुम सा अब  खुद का तस्वीर देखा है
चित्थड़ों मे  बिखरा  हुआ  कई शरीर देखा है

सुर्ख आँखों से खुशी के मेरे  अब  नीर बहने दो
खामखाँ जन्नत कहने वालों मुझे कश्मीर ही रहने दो

अब म्यान मे लिपटी हुई......

कभी  धर्म के  नाम पर  खदेड़ा गया हूँ मैं
कभी मजहब की आड़ में उधेड़ा गया हूँ मैं

मैं कौन हूँ कहाँ हूँ मैं,कइ टुकड़ों में बंटा हूँ मैं
अब सियासत की भूख मे हो गया फन्ना हूँ मैं

बहोत जिल्लत उठा चुका हूँ अब गम्भीर रहने दो
खामखाँ जन्नत कहने वालों मुझे कश्मीर ही रहने दो

अब म्यान मे लिपटी हुई मुझे शमशीर रहने दो
कुछ वक़्त के लिए सही मुझे बे-पीर रहने दो

बहोत विभत्स हो चुका हूँ खुद से ही लड़कर मैं
खामखाँ जन्नत कहने वालों मुझे कश्मीर ही रहने दो

ग़ज़ल

सबसे अलग और सबसे जुदा लिखता
तुम शब्द होती तो तुम्हें मैं बेइंतेहां लिखता

हर शाम लिखता हर सहर लिखता
बस इक तुम्हें ही मैं हर पहर लिखता

हर पन्ने पर सजी तुम कई किताब होती
तुम मुझ में बे-हद और बे-हिसाब होती

कभी तुम्हें गुल तो कभी गुलिश्तां लिखता
तुम शब्द होती तो तुम्हें मैं बेइंतेहां लिखता

हर नज्म हर गजल से तेरी ही खुश्बू आती
हर हर्फ़ में मेरे तुम, कुछ यूं रवां हो जाती

हर किस्से कहानियों में, मेरी जुबानियों मे
सिर्फ़ तुम्ही बसर करती मेरी निशानियों मे

कभी महबूब तो तुम्हें कभी खुदा लिखता
तुम शब्द होती तो तुम्हें मैं बेइंतेहां लिखता

© इंदर भोले नाथ
#6387948060
बलिया, उत्तर प्रदेश

Wednesday, July 8, 2020

ग़ज़ल

उम्र भर तुम से अब कोई वास्ता भी नहीं रखना
हाँ ये भी सही है के जुदा तुमसे रास्ता भी नहीं रखना

मेरी जिंदगी तबाह कर के तुम आबाद रहोगे कैसे
मुझे कैद ए हयात देने वाले तुम आजाद रहोगे कैसे

मैं मिटा दूं खुद को ये मैं हरगिज़ होने नहीं दूंगा
तेरे जेहन से अपनी यादों को मैं खोने नहीं दूंगा

दिल में अधूरी अब कोई दास्ताँ भी नहीं रखना
हाँ ये भी सही है के जुदा तुमसे रास्ता भी नहीं रखना

मेरा क्या है हम अल्फाजों संग जिंदगी गुजार देंगे
ये वादा रहा तुमसे हम तुम्हारी जिंदगी बिगाड़ देंगे

सदियों से चली आई इस रीति को जड़ से उखाड़ना है
तुम जैसी बेवफाओं को अब मुझे ही सुधारना है

तुम जाओ के तुमसे अब कोई राब्ता भी नहीं रखना
हाँ ये भी सही है के जुदा तुमसे रास्ता भी नहीं रखना

उम्र भर तुम से अब कोई वास्ता भी नहीं रखना
हाँ ये भी सही है के जुदा तुमसे रास्ता भी नहीं रखना

© इंदर भोले नाथ

Friday, July 3, 2020

कविता

"सुनो हे भारत माता"

तांडव करेंगे रूद्र बनकर 
दिखा देंगे जो शौर्य हमारा है 
सुनो हे भारत माता 
हमको सौगंध तुम्हारा है

राणा की वो भाल बन के 
तांडव वो कमाल बन के
हम विध्वंश करेंगे शत्रु का
चेतक सा वो चाल बन के 

मौत ही विकल्प एकमात्र बन के 
चौहान वंश का पात्र बन के
हम विध्वंश करेंगे शत्रु का
माँ शक्ति सा कालरात्रि बन के

अशोक सम्राट महान बन के
गुप्त वंश का आन बन के
हम विध्वंश करेंगे शत्रु का
मां भारती की शान बन के

भगत सिंह की बोली बन के 
खून की होली बन के
हम विध्वंश करेंगे शत्रु का
आजाद की गोली बन के

चाणक्य की नीति बन के
रघुकुल की रीति बन के 
हम विध्वंश करेंगे शत्रु का 
महान विक्रमदित्य बन के

राम का धनुष बाण बन के 
सुदर्शन चक्र महान बन के
हम विध्वंश करेंगे शत्रु का 
झांसी की कृपाण बनके 

हिमालय सा पहाड़ बनके
सिंह सा दहाड़ बन के
हम विध्वंश करेंगे शत्रु का 
ब्रह्मास्त्र सा बाण बन के

चामुंडा  सा रक्त चाट के 
काली सा खप्पर लिये हाथ मे
हम विध्वंश करेंगे शत्रु का 
कपाली सा नर मुंड काट के

यू पी वाला तेवर बन के 
मौत का जेवर बन के
हम विध्वंश करेंगे शत्रु का
वीर सिंह कुंवर बन के

हर तरफ गूंजा यही नारा है 
जर्रे जर्रे ने यही पुकारा है 
पीठ पे वार करने वालों सुनो 
अब सुनुश्चित् विध्वंस तुम्हारा है

तांडव करेंगे रूद्र बनकर 
दिखा देंगे जो शौर्य तुम्हारा है
सुनो हे भारत माता
हमको सौगंध तुम्हारा है
©इंदर भोले नाथ

जय श्री राम ही बोलेंगे

मुंह खोलने से पहले, हम हर शब्द तोलेंगे, किन्तु
झूठी कौम की आड़ में तुम सा जहर नहीं घोलेंगे

तुम्हारी चादरों से ढकी हम हर राज खोलेंगे,उचित है
वंशज हैं हम राम के, तो जय श्री राम ही बोलेंगे

मुंह खोलने से पहले..

जो  गुजर चुका है फिर  वही  इतिहास  दोहरायेंगे
पहले दंभ करेंगे चूर, फिर  तुम्हारी चिता जलायेंगे

जो पहचान है सदियों से वही हिंदुस्तान बनाएंगे
तुम्हारे  सीने पे  फिर से  वही  भगवा  लहराएंगे

खून से सनी वो राणा की भाल हो लेंगे, उचित है
वंशज हैं हम राम के, तो जय श्री राम ही बोलेंगे

मुंह खोलने से पहले..

महाभारत की युद्ध मे तुम्हारी निशां तक दिखी नहीं
राम चरित मानस में तुम्हारी किस्सा तक लिखी नहीं

हो कौन कहाँ से आये हो,किस ग्रह किस जहाँ से हो
जो कौड़ी के मोल भी, तुम्हारी  औकात  बिकी नहीं

इक बार नहीं सौ बार नहीं हर बार यही बोलेंगे,उचित है
वंशज  हैं  हम राम के,  तो  जय श्री राम  ही बोलेंगे


मुंह खोलने से पहले.. 

Friday, June 19, 2020

ज़िंदगी तुं बस माया ही रही


ए जिंदगी मैं तेरा
होकर भी तेरा न रहा
मौत की आगोश में
कोई सबेरा न रहा

जिसके हर ईट मे
अरमान पिरोये थें
वो सोने का महल
अब मेरा न रहा

तुं सच नहीं बस
माया ही रही
आत्मा से परे
काया ही रही

तेरे पीछे जब
उमर गंवाई है
तब जाकर हमें
समझ ये आई है

कैद था मैं संसार में
घर में और परिवार में
गुरुर में दिन गुजारे हैं
बस झूठी अहंकार में

वो जल रही धूं-धूं करके
जिसपे खतम ईमान किया
हो बेखबर इस रूह से
जीस बदन पर गुमान किया

आजाद हूँ तेरे
कैद से अब
मुझ पर अब
तेरा पहरा न रहा

ए जिंदगी मैं तेरा
होकर भी तेरा न रहा
मौत की आगोश में
कोई सबेरा न रहा

© इंदर भोले नाथ

मैं हैरान हूँ

मैं हैरान हूं
यह सोच कर
वो चैन से
कैसे सोता है
क्या इस दुर्दशा
को देख कर
उसका जमीर
नहीं रोता है

उसकी आंखों के
सामने कई यातनाएं
कई सितम हुएं
उस मासूम पर

वो नि:शब्द हुए
खामोश रहा
जुल्म होते देखता
रहा उस मजलूम पर

वो रखवाला
बन कर आया था
खुद ही चीरहरण
करने लगा
खुद ही ताले तोड़कर
करोड़ों का गमन
करने लगा

है कंस से ज्यादा
क्रूर वो
रावण से ज्यादा
अभिमानी है
शकुनी सा वो
धूर्त है
दुर्योधन सा अज्ञानी है

एक नहीं कई
रूप हैं उसके
छांव भी उसके
धूप भी उसके

वह नर भी है
मादा भी है
इन सब से
ज्यादा भी है

वो चोर भी है
वो साधु भी
वो सच भी है
वो जादू भी

उसकी करतूतों
की मनमानी है
वो चोर
खानदानी है

है बाप की
सत्ता समझ रहा
बस मजलूमों
पर ही गरज रहा

मैं क्या नाम दूँ?
कई नाम हैं उसके
बस घिनौने
काम हैं उसके

© इंदर भोले नाथ




मृगतृष्णा

मैं चलता रहा


मृगतृष्णा सा हो
चला है मन
न जाने किस
की खोज में
भटक रहा
उपवन उपवन

व्याकुल होकर
आतुर होकर
हर रिश्ते से
जा दूर होकर

मैं चलता रहा
बस चलता रहा
अब नींद से
काफूर हो कर

नगरे नगरे
द्वारे द्वारे
भटक रहा
मारे मारे

अंधियारे से
उजियारे से
कभी छाए बदरा
कारे कारे से

खुद से ही
खुद को ढूंढ रहा
मैं सच से
आंखें मूंद रहा

कभी सागर की
आस जगी मुझको
कभी प्यास बस
एक बूँद रहा

कभी बरस गया
बादल बनकर
कभी रेगिस्तां सा
तपता रहा

थक कर मैं
सो भी गया
पर ख्वाब तो
मुझमें जगता रहा

मैं चलता रहा
हाँ चलता रहा

© इंदर भोले नाथ
बलिया, उत्तर प्रदेश
#6387948060


Monday, June 15, 2020

तुम्हारा  शहर  भी  कुछ-कुछ  मेरे शहर सा है
ऊँची इमारतों के दरमियाँ इक छोटा घर सा है

वही जलन वही द्वेष वही  खलिशपन है देखी
नफरतों के मंजर का यहां भी वही असर सा है

©इंदर भोले नाथ

हम चलते ही रहें बे-हिस हुए
फिर दिल में ना ख्वाहिश हुए

कभी रातों के साये में ढलें
कभी तपती धूप मे हैं जलें

सावन में जलें तपन में हैं गलें
हम हर मौसम चलते ही चलें

बेहिसाब चलें लाजवाब चलें
पन्ने से बन कर किताब चलें

टुटें फिर भी जा़हिर न हुआ
दबाये दिल में हैं अज़ाब चलें

गलियों में चलें शहरों में चलें
फूलों पे चलें पत्थरों पे चलें

आंखों में नमी की न कमी रही
दिल में भी उदासी थमी रही

हम बेबस हो लाचार चलें
हम यार चलें बेशुमार चलें

हम चलते ही रहें चलते ही रहें
रस्ते युं ही कटते ही रहें

खुदा से  दुआ  मांगू  वो भी  तुम्हारे लिए "इंदर"
अरे छोड़ो इससे अच्छा तो हमें मौत ही आ जाये

बे-हद  और  बे-हिसाब  है  ये
जो आँखों में पलते ख़्वाब है ये

बस यादें रही और दर्द रहा
अश्क़ों  से मौसम सर्द रहा

हाँ सबने देखी मुस्कान मेरी
जो अंदर ही अंदर मर्ज़ रहा

उम्मीद रही  कुछ  कर्ज़ रहा
हम निभाते गयें जो फ़र्ज़ रहा

न ख्वाब न कोई तमन्ना थी
न तेरे बाद ही कोई अर्ज़ रहा

जैसे भी हो दिल को भाने लगे हो
तुम आंखों से  नींदे चुराने लगे हो

अब ख्याल तुम्हारा हर घड़ी रहता है
मेरी नफ़स नफ़स में समाने लगे हो

एक हश्र है, एक आह है, दोनों  ही बेपनाह है
तुम छोड़ कर टूट गये, हम तोड़ कर टूट गयें

Tuesday, June 9, 2020

ग़ज़ल

ये कुछ दिनों से खुमारी बढ़ी जो इस क़दर है
क्यूँ जोश में है जवानी, क्यूँ बहेका ये उमर है

क्यूं हो रहे हैं बेखबर हम जमाने की हकीकत से
ये हमको भी पता है, ये तुमको भी खबर है

आशां नहीं है इतना ये जो इश्क की डगर है
है कांटो भरा ये रस्ता बड़ी मुश्किल ये रहगुजर है

मुकम्मल जो हो गया तो, जिंदगी संवर जाएगी
वर्ना जीने नहीं है देता ये जो गमे इश्क का सफर है

कई आशियां है उजड़े कई वीरान हुए घर हैं
है कांटो भरा ये रस्ता बड़ी मुश्किल ये रहगुजर है

कुछ इस कदर हुए हैं हम दोनों एक-दूजे के ऐसे
मैं तुझ में समा गया हूं, तुम मुझ में हुआ बसर है

@ INDER BHOLE NATH
जब डमरू डम डम बोले है
तब  तन  मन मेरा डोले है

तुम हाल न पूछो इंदर का
सब कुछ बम बम भोले है

इक तुम्हारे वास्ते वो क्या-क्या सहती है
तुम्हें सुलाने को रातों को जगती रहती है

तुम व्यर्थ ही मंदिरों के चक्कर लगाते हो
अरे खुद मां के पैरों में ही जन्नत बसती है

जो कहती थी कभी,इंदर मुझे भुला तो ना दोगे
आज वह गैरों के नाम की मेहंदी रचाए बैठी है

जिसकी यादों के बिन मेरा इक लम्हा भी गुजरा न हो
वो किसी रकिब की खातिर मुझे ही भुलाये बैठी है

तेरे दर पे पूरी मेरी कोई इबादत क्यों नहीं होती
ऐ इश्क़ तेरी रहमत की मुझपे इनायत क्यों नहीं होती

हर मुहल्ला मेरी बदनामी के किस्से सुनाते हैं
के तेरी बेवफाई की भी शिकायत क्यों नहीं होती

ये झुठी दर्द और दुहाई बयां करते लोग
गरीबी  से गरीबों को तबाह करते लोग

ये क्या जानें जलती रेत पर नंगे पांव चलने का दर्द
दो रोटी को मोहताज हो कर भूख से मरने का दर्द

कभी निकलो तपती धूप में अपने बच्चों के साथ
तुम भी गुजारो कभी  रेल की पटरी पर इक रात

ए.सी में बैठे बैठे तुमने हमारा दर्द महसूस कर लिया
हमें खबर भी नहीं और तुमने हमें महफूज कर लिया

हमारे दर्द सुना कर तुम कुछ आह भर गये
वो सुने तुम्हारे शब्द और कई वाह कर गये

क्या फर्क पड़ा तुम्हारे सुनने और सुनाने से
फिर भी तो हमारे जैसे कई बेगुनाह मर गये

किसी की पूजा है अधुरी किसी को नमाज़ की फिकर
वहां कई बेघर हो भूख से मर गये, यहाँ किसको खबर है

ये  हवा  जब  तुम्हारी  खुशबू लाये
जोश ए जुनूँ  बदन  में  हरसू  लाये

न  ज़ोर  चले  न इस पे काबू आये
दिल  को बस तेरी ही आरजू आये

न ख्याल न ज़िक्र किसीका हो अब
लबों  पे  बस  तेरा ही गुफ्तगू आये

दर बदर फिरू के गुमनाम हो जाऊं
युँ इस क़दर नशा तेरी जुस्तज़ू लाये

©इंदर भोले नाथ

मेरी हर ग़ज़ल मे तो ज़िक्र तेरा ही होता है
हाँ ये अलग बात है के तेरा नाम नहीं होता

©इंदर भोले नाथ

मेरे  इश्क़ की  और  इंतेहाँ  क्या है
मेरी खुदी पूछती है मेरा पता क्या है

के   तेरे   बाद   कोई  असर  तो  रहे
मेरे  दिल  में  यादों  की  बसर तो रहे

मेरी  हर  शाम  गुजरे  इसी उम्मीद मे
के  तेरे  आने  की  कोई खबर तो रहे

तुमने  जो भुला दिये कहानी की तरह
किसी ने उसे रखा है निशानी की तरह

इस  जहाँ से परे कोई बे-खबर तो रहे
प्यासा कहीं गुमनाम इक शजर तो रहे

© इंदर भोले नाथ

सहर  ढूँढता  और  रात जागती रही मेरी
के तेरी तलाश में ज़िंदगी भागती रही मेरी

#इंदरभोलेनाथ
@InderBhole

ये शाम फिर वही पहचानी सी है
आंखों में फिर वही कहानी सी है

रोज खामोशियों में गुजरते हैं पल
दास्तां इश्क़ की वही पुरानी सी है

ये शाम फिर.....

तुं मुझ में है  या  तुझ में हूँ मैं
आज तक ये समझ पायें न हम

खामोशी है या जुबानी सी है
मुझ में तेरी कोई निशानी सी है

ये शाम फिर........

अधूरे स्वप्न कुछ तुम्हारे भी हैं
ख्वाहिशें कुछ अधूरी हमारी भी है

तेरे दिल में भी हलचल तूफानी सी है
मेरी आँखों मे भी थोड़ी पानी सी है

ये शाम फिर.....

इक आस है, जो खास है
आँखों में  इक नमी सी है

हाँ मैं मुकम्मल हूँ लेकिन
कहीं तो कुछ कमी सी है

कोई तो है जो न गुजरा है
मुझमें अब भी वो ठहरा है

मैं उसे जुदा कर भी देता,वो
जीने के लिये लाज़मी सी है

लगे ज़ख़्म भी मिटा दियें तुम्हारे खत भी जला दियें
फिर भी पुछता है दिल क्या मैंने......तुम्हें भुला दियें
जो कहती थी कभी,इंदर मुझे भुला तो ना दोगे
आज वह गैरों के नाम की मेहंदी रचाए बैठी है

जिसकी यादों के बिन मेरा इक लम्हा भी गुजरा न हो
वो किसी रकिब की खातिर मुझे ही भुलाये बैठी है

तेरे दर पे पूरी मेरी कोई इबादत क्यों नहीं होती
ऐ इश्क़ तेरी रहमत की मुझपे इनायत क्यों नहीं होती

हर मुहल्ला मेरी बदनामी के किस्से सुनाते हैं
के तेरी बेवफाई की भी शिकायत क्यों नहीं
ये झुठी दर्द और दुहाई बयां करते लोग
गरीबी  से गरीबों को तबाह करते लोग

ये क्या जानें जलती रेत पर नंगे पांव चलने का दर्द
दो रोटी को मोहताज हो कर भूख से मरने का दर्द

कभी निकलो तपती धूप में अपने बच्चों के साथ
तुम भी गुजारो कभी  रेल की पटरी पर इक रात

ए.सी में बैठे बैठे तुमने हमारा दर्द महसूस कर लिया
हमें खबर भी नहीं और तुमने हमें महफूज कर लिया

हमारे दर्द सुना कर तुम कुछ आह भर गये
वो सुने तुम्हारे शब्द और कई वाह कर गये

क्या फर्क पड़ा तुम्हारे सुनने और सुनाने से
फिर भी तो हमारे जैसे कई बेगुनाह मर गये

किसी की पूजा है अधुरी किसी को नमाज़ की फिकर
वहां कई बेघर हो भूख से मर गये, यहाँ किसको खबर है

Thursday, May 7, 2020

ग़ज़ल

इक आस है, जो खास है
आँखों में  इक नमी सी है

हाँ मैं मुकम्मल हूँ लेकिन
कहीं तो कुछ कमी सी है

कोई तो है जो न गुजरा है
मुझमें अब भी वो ठहरा है

मैं उसे जुदा कर भी देता,वो
जीने के लिये लाज़मी सी है

©इंदर भोले नाथ

Monday, May 4, 2020

गीत -ये शाम फिर वही पहचानी सी है

ये शाम फिर वही पहचानी सी है
आंखों में फिर वही कहानी सी है

रोज खामोशियों में गुजरते हैं पल
दास्तां इश्क़ की वही पुरानी सी है

ये शाम फिर…..

तुं मुझ में है  या  तुझ में हूँ मैं
आज तक ये समझ पायें न हम

खामोशी है या जुबानी सी है
मुझ में तेरी कोई निशानी सी है

 ये शाम फिर……..

अधूरे स्वप्न कुछ तुम्हारे भी हैं
ख्वाहिशें कुछ अधूरी हमारी भी है

तेरे दिल में भी हलचल तूफानी सी है
मेरी आँखों मे भी थोड़ी पानी सी है


ये शाम फिर वही पहचानी सी है
आंखों में फिर वही कहानी सी है

©इंदर भोले नाथ

Friday, May 1, 2020

ग़ज़ल

के   तेरे   बाद   कोई  असर  तो  रहे
मेरे  दिल  में  यादों  की  बसर तो रहे

मेरी  हर  शाम  गुजरे  इसी उम्मीद मे
के  तेरे  आने  की  कोई खबर तो रहे

तुमने  जो भुला दिये कहानी की तरह
किसी ने उसे रखा है निशानी की तरह

इस  जहाँ से परे कोई बे-खबर तो रहे
प्यासा कहीं गुमनाम इक शजर तो रहे

© इंदर भोले नाथ


Monday, April 27, 2020

कविता

हम चलते ही रहें बे-हिस हुए
फिर दिल में ना ख्वाहिश हुए

कभी रातों के साये में ढलें
कभी तपती धूप मे हैं जलें

सावन में जलें तपन में हैं गलें
हम हर मौसम चलते ही चलें

बेहिसाब चलें लाजवाब चलें
पन्ने से बन कर किताब चलें

टुटें फिर भी जा़हिर न हुआ
दबाये दिल में हैं अज़ाब चलें

गलियों में चलें शहरों में चलें
फूलों पे चलें पत्थरों पे चलें

आंखों में नमी की न कमी रही
दिल में भी उदासी थमी रही

हम बेबस हो लाचार चलें
हम यार चलें बेशुमार चलें

हम चलते ही रहें चलते ही रहें
रस्ते युं ही कटते ही रहें

©इंदर भोले नाथ

Friday, April 24, 2020

बागवानी

                      "बागवानी"

जो  विष फैली है हवाओं में वो, रग रग में बस जानी है
कुछ  इस  क़दर अशुद्ध हुएं हैं, कण कण और पानी है

इक वक़्त ऐसा आयेगा, श्वास लेना भी दूभर हो जायेगा
कटती गिरती हरियाली की हर आह कि सुनी कहानी है

जो  विष फैली है हवाओं में................................

ऊँची  इमारतों की  भूख  में, तुम इस क़दर हो चूर हुए
जो  ज़िंदगी है हम सब की, उसे काटने को मजबूर हुए

गुरुर ओ दम्भ तुम्हारी चूर करेगी, मन में उसने ठानी है
बस बाग नहीं,ये ज़िंदगी है,ये जो उजड़ रही बागवानी है

जो  विष फैली है हवाओं में, वो रग रग में बस जानी है
कुछ  इस  क़दर अशुद्ध हुएं हैं, कण कण और पानी है

©इंदर भोले नाथ














Monday, April 20, 2020

ग़ज़ल

चंद सांस लिये इक आस लिये
कुछ यादें   अपने   पास लिये

गम ए इश्क़  का सौगात लिये
इन आंखों में  कई   रात लिये

कुछ अनकहे    जज्बात लिये
गर्दिश  वाली    हालात  लिये

तेरे  शहर  से  अब गुजरते हैं
हम अश्कों की बरसात  लिये

... इंदर भोले नाथ

शेर ओ शायरी

तेरी हर इक बात मुझसे मेरी औक़ात पूछती है
मेरी तआरुफ़  के वासते  मेरी  जाति पूछती है

तुम  मिजाज़  रखते हो  शायद ऊंचे घराने का
मुफ़लिसी कहां  किसी से   औक़ात  पूछती है

...इंदर भोले नाथ

ग़ज़ल

क्या तड़प दिखाउं मैं तुम्हे
तन्हा   स्याह    रातों  का

यूँ  बेवज़ह हर घड़ी आना
मुसलसल  तेरी  यादों का

इक  वादा  रोज करते हैं
ये  सिलसिला मिटाने को

पर अक्सर  टुट  जाते  हैं  
ये वादे हैं महज़ बातों का

#इंदरभोलेनाथ
@InderBhole

ग़ज़ल

चरागों से कह दो ना बुझे इक आस बाकी है
धड़कनें भी हैं चल रही, अभी सांस बाकी है

कब से दबे हैं दिल में अल्फाजों का काफिला
कई  अनकहे  से वो  अभीं जज्बात  बाकी है

ये  तय  हुआ था कि,  आखिरी दीदार करेंगे
जरा ठहर जाओ अभीं,वो मुलाकात बाकी है

#इंदरभोलेनाथ
@InderBhole

#Corona@lockdown

वो  जिस्म है या कोई साया है, जो
चुपके से हर सय में उतर आया है

बदला हुआ है शहर का मिजाज़,वो
बनके  खौफ़ हर दिल में समाया है

मेहमान बन के शहर  में आया था
क्युं  बैठ गया  वो  हक जमाया है

बे दखल  कर के कोई भगाये इसे
इसने  दिल  को बहोत दुखाया है

#corona#lockdown
#इंदरभोलेनाथ

Wednesday, February 12, 2020

हां मैंने इश्क को जहन्नुम से भी बद्तर देखा है

मैंने अश्क़ों के समंदर संग अपना मुकद्दर देखा है
हां     मैंने इश्क को जहन्नुम से भी बद्तर देखा है

ज़िंदगी   गुजर    जाती है    इंतज़ार  में   अक्सर
हाँ      मैंने   इश्क़ में    हसर   इस  क़दर देखा है

इन  आंखों  से  नींद अब  काफ़ूर  सी हो  गई  है
के तेरी तलाश में मैंने इस क़दर दर ब दर देखा है

मिलते नहीं है ख़्वाबों में भी वो बिछड़ जाने वाले
हुए इंतज़ार मे बसर   कितने रह ए गुज़र देखा है

महज़ सांसों के चलने से जिंदगी जिंदा नहीं रहती
हाँ     मैंने   जीते जी  "इंदर" तेरा   क़बर  देखा है

© इंदर भोले नाथ

Monday, February 3, 2020

रियासत है गुंज रही गरीबों के चित्कारों से

सियासत नाच कर रही अमीरों के इशारों पे
रियासत है गुँज रही गरीबों के चित्कारों से

शांति और उन्नति का वो चमन रहा नहीं
आवाम बिखर रहा है अब देश के गद्दारों से

मुंह खोला जब भी उसने जहर ही उगाला है
आस्तीनों में सांप हम ने ही तो पाला है

आसरा दिया उनको हालत पे तरस खाकर
क्या पता था लुट जाएंगे नेकी के विचारों से

फुर्सत मिले तो देखना कभी इस गरीब खाने में
कैसे जी रहे हैं हम दो वक्त की रोटी कमाने में

इक तुम पे ही भरोसा था तुम भी उन जैसा निकले
कर अनदेखा किसानों को जा मिले साहूकारों से

                                      

Thursday, January 30, 2020

शायरी

पहले जैसा अब गुफ्तगु नहीं होता
कभी मैं नहीं तो कभी तुं नहीं होता
मिलते फिर कभी उसी ठिकाने पे
बारहा "इंदर" ऐसा क्यूं नहीं होता

शायरी

कइ दर्द.......बेशुमार लिखा है
बरसों का.....इंतेज़ार लिखा है
जिसके ज़ुबाँ पे मेरा ज़िक्र तक नहीं
हमने उस पे अखबार लिखा है

ग़ज़ल

चलो फिर से दिल लगाते हैं कहीं
फिर मोहब्बत आजमाते हैं कहीं

जिस्म तो कहीं और हार चुके हैं
सांसो को दांव पे लगाते हैं कहीं

ज़िंदगी का क्या है ये चलती रहेगी
फिर इसका साथ निभाते हैं कहीं

इक बेवफ़ा के नाम आधी गुजरी है
आधी ज़िंदगी फिर गवाते हैं कहीं

           

                 ......इंदर भोले नाथ

Wednesday, January 29, 2020

शायरी

मोहब्बत ए जुनूँ रूह तक उतार दी गई
इक मुलाक़ात पे ज़िंदगी गुज़ार दी गई



ग़ज़ल

राह ए मोहब्बत में कभी ये मकाम न आये
मौत आये पर अश्क़ों का जाम न आये

गवारा है कि मेरे हिस्से कोई इनाम न आये
बदनाम ही सही पर हस्ती गुमनाम न आये
मौत आये पर अश्क़ों का जाम न आये

दर्द से निजात का कोई एहतमाम न आये
है दर्द में सुकून कि अब आराम न आये
मौत आये पर अश्क़ों का जाम न आये

रहूं बेकार ही सही किरदार गुलाम न आये
जिंदगी खैरात पे बसर हो वो अंजाम न आये
मौत आये पर अश्क़ों का जाम न आये

बेवफा,संगदिल,बेमुरव्वत तेरा नाम न आये
की दुआ है यही तेरे सर कोई इल्जाम न आये
मौत आये पर अश्क़ों का जाम न आये



... इंदर भोले नाथ