Wednesday, October 5, 2022

भला कैसे हो सकता है

बगैर तेरे जिंदा भला कैसे हो सकता है
वो शख्स बेवफ़ा भला कैसे हो सकता है

कि जिसके आने से हुआ हो बवंडर का आगमन
वो मस्अला बेवजह भला कैसे हो सकता है

जो सितारा टिमटिमाता हो उसकी रौशनी लेकर
उसी चाँद से ख़फ़ा भला कैसे हो सकता है

कि जिसने खरीद लिया है मत दारू और पैसों से
वो नेता अच्छा इन्सां, भला कैसे हो सकता है

जिसके दर ओ दीवार ने तुम्हारा अतित संवारा हो
वो घर कभी मकां भला कैसे हो सकता है

जो रिश्ता खड़ा ही झूठ के बुनियाद पे हो "इंदर"
उस रिश्ते का भला, भला कैसे हो सकता है

©® इंदर भोले नाथ

बागी बलिया उत्तर प्रदेश

Tuesday, October 4, 2022

पूछ रहा धरती अम्बर,कि पूछे हर वासिंदा है
घात लगाये ब्याध है बैठा, सहमा हर परिंदा है
पूछ रही रावण की वेदना पूछ रहा असुर दल है
जला रहे हो रावण को क्या तुममें राम जिंदा हैं

वासिंदा- नागरिक
ब्याध- शिकारी

©® इंदर भोले नाथ
बागी बलिया उत्तर प्रदेश
 

 

मदमस्त चली पुरवाई है

पिय मिलन की आस में,सुध बुध सब बिसराइ है
बावरी हो चली बिरहन, मदमस्त चली पुरवाई है


आंगन से दहलीज तलक 
भ्रमण कई कई बार किया
कंगन,बिंदी,चूड़ी, काजल 
उसने सोलह श्रृंगार किया
आईने में देख छवि खुद की,खुद से ही शरमाई है
बावरी हो चली बिरहन, मदमस्त चली पुरवाई है


कागा से बात करन लगी
वो कोयल के अंदाज मे
वो मोरनी सी नाच रही
है पुरवाई की साज पे
पल्लू ओड़ रही सर पे, कभी आँचल लहराई है
बावरी हो चली बिरहन, मदमस्त चली पुरवाई है


देह सुखे बृक्ष की भाँति
धरा सी प्यासी प्यासी है
खबर मिली जब से आने की
वो कई रातों की जागी है
मिलन की बेला में भी सही वो सौ सौ बार जुदाई है
बावरी हो चली बिरहन, मदमस्त चली पुरवाई है


पलकें भी झपक नहीं रही
धड़कन की गति भी तेज हुई
रहे खड़ी तो पांव जले से हैं
बिस्तर काँटों की सेज हुई
मुंडेर से देख रही रस्ता, रस्ते पे आँख बिछाई है
बावरी हो चली बिरहन, मदमस्त चली पुरवाई है


इंदर भोले नाथ
बागी बलिया, उत्तर प्रदेश

कैसे रहें हम प्रेम से वंचित

जागृत हुआ उन्माद हृदय में,कोटि-कोटि स्वप्न हैं संचित
जगत है नाचे इसकी धुन पे,कैसे रहें हम प्रेम से वंचित


तुम्हारा उत्तर न देना मन में सवाल जगाये बैठा है
नयन भी अश्रू का सागर विशाल बनाये बैठा है
उन्मुक्त उन्माद है सिने में पाबंदी रास नहीं आता
हृदय विरह क्रांति का मशाल जलाये बैठा है
धीरज-धैर्य-सामर्थ्य-सब्र, विवशता मे हो रहे खंडित
जगत है नाचे इसकी धुन पे,कैसे रहें हम प्रेम से वंचित


अथाह समन्दर सीमित है,कब,बांध लांघने आ जाये
असीमित स्वप्न नैनों में हैं, कब, हद्द बांधने आ जाये
पथ सदैव प्रतिक्षित हो, ध्वस्त न आस हृदय से हो
न ब्यर्थ नयन अश्रु हो, कब समन्दर मांगने आ जाये
नैन तृष्णित,हृदय अधीर, देह संग चैतन्य है दंडित
जगत है नाचे इसकी धुन पे,कैसे रहें हम प्रेम से वंचित


ब्याकुल-ब्यग्र-ब्यथित हो, सच ये कहावत करता है
कभी हाल जो था दीवानों का,ये भी यथावत करता है
कभी भाता है एकाकीपन,कभी अंधकार से लड़ता है
हृदय विरह विदारक हो नित-दिन बगावत करता है
जागृत हुआ उन्माद हृदय में,कोटि-कोटि स्वप्न हैं संचित
जगत है नाचे इसकी धुन पे,कैसे रहें हम प्रेम से वंचित


~ इंदर भोले नाथ
बागी बलिया, उत्तर प्रदेश
# 6387948060
1-
 
फिर उसी राह से गुजरने की खता कर दिया करो
तुम अपने चाहने वालों पे वफ़ा कर दिया करो

ये जिस्म-ए-सराय के जिसमे रह रहे हो बरसों से
कभी मिल के किराया भी अता कर दिया करो


~ इंदर भोले नाथ


2-

बे-मस्अला, बे-वजह की लड़ाई, मुबारक हो
नई शाख, नया शहर नई ख़ुदाई , मुबारक हो

मैं दरख़्त हूँ, है उड़ान मेरी फ़ितरत में कहाँ
जा रहे हो, तुम्हें, तुम्हारी रिहाई, मुबारक हो
 

~ इंदर भोले नाथ



 

इधर हाथ में लाठी था

दामन लिपटा है गंगा से
सर पे विराजित काशी है
हम उस सदर के वाशी हैं
भृगु जहाँ के निवासी हैं

गुंज उठी द्वाबा की भूमि 
बागियों के लालकारों से
लाठ्ठिया भी कम न पड़ी
बरछी और तलवारों से

सर पे गमछे की पगड़ी 
तिलक सु-शोभित माटी था
बगावत का जुनूँ जिगर में
गौरवांवित् हर छाती था

रणभूमि भी खौफ मे थी
अंजाम युद्ध का क्या होगा
उधर चीखती बंदुखे थी 
इधर हाथ में लाठी था

सन् ब्यालिस की शाम थी
जाग उठी अवाम थी
थर्रा उठी  ब्रिटिश हुकूमत
हलक में आ गई जान थी

तोड़ जंजीरें, आज़ादी का
स्वाद चखा था बलिया ने
देश में पहली आज़ादी का
नींव रखा था बलिया ने

मंगल पांडे की धरती ने
आज़ादी का बिगुल बजाया था
सन् ब्यालिस मे ही बलिया ने
सहर्ष तिरंगा लहराया था

स्वतंत्रता की हार पहन
खिल उठी हर जाति थी
उधर चीखती बंदुखे थी 
इधर हाथ में लाठी था


क्रमश:................ 


~ इंदर भोले नाथ

बागी बलिया उत्तर प्रदेश

# 6387948060