Monday, June 15, 2020

तुम्हारा  शहर  भी  कुछ-कुछ  मेरे शहर सा है
ऊँची इमारतों के दरमियाँ इक छोटा घर सा है

वही जलन वही द्वेष वही  खलिशपन है देखी
नफरतों के मंजर का यहां भी वही असर सा है

©इंदर भोले नाथ

हम चलते ही रहें बे-हिस हुए
फिर दिल में ना ख्वाहिश हुए

कभी रातों के साये में ढलें
कभी तपती धूप मे हैं जलें

सावन में जलें तपन में हैं गलें
हम हर मौसम चलते ही चलें

बेहिसाब चलें लाजवाब चलें
पन्ने से बन कर किताब चलें

टुटें फिर भी जा़हिर न हुआ
दबाये दिल में हैं अज़ाब चलें

गलियों में चलें शहरों में चलें
फूलों पे चलें पत्थरों पे चलें

आंखों में नमी की न कमी रही
दिल में भी उदासी थमी रही

हम बेबस हो लाचार चलें
हम यार चलें बेशुमार चलें

हम चलते ही रहें चलते ही रहें
रस्ते युं ही कटते ही रहें

खुदा से  दुआ  मांगू  वो भी  तुम्हारे लिए "इंदर"
अरे छोड़ो इससे अच्छा तो हमें मौत ही आ जाये

बे-हद  और  बे-हिसाब  है  ये
जो आँखों में पलते ख़्वाब है ये

बस यादें रही और दर्द रहा
अश्क़ों  से मौसम सर्द रहा

हाँ सबने देखी मुस्कान मेरी
जो अंदर ही अंदर मर्ज़ रहा

उम्मीद रही  कुछ  कर्ज़ रहा
हम निभाते गयें जो फ़र्ज़ रहा

न ख्वाब न कोई तमन्ना थी
न तेरे बाद ही कोई अर्ज़ रहा

जैसे भी हो दिल को भाने लगे हो
तुम आंखों से  नींदे चुराने लगे हो

अब ख्याल तुम्हारा हर घड़ी रहता है
मेरी नफ़स नफ़स में समाने लगे हो

एक हश्र है, एक आह है, दोनों  ही बेपनाह है
तुम छोड़ कर टूट गये, हम तोड़ कर टूट गयें