Friday, June 19, 2020

मृगतृष्णा

मैं चलता रहा


मृगतृष्णा सा हो
चला है मन
न जाने किस
की खोज में
भटक रहा
उपवन उपवन

व्याकुल होकर
आतुर होकर
हर रिश्ते से
जा दूर होकर

मैं चलता रहा
बस चलता रहा
अब नींद से
काफूर हो कर

नगरे नगरे
द्वारे द्वारे
भटक रहा
मारे मारे

अंधियारे से
उजियारे से
कभी छाए बदरा
कारे कारे से

खुद से ही
खुद को ढूंढ रहा
मैं सच से
आंखें मूंद रहा

कभी सागर की
आस जगी मुझको
कभी प्यास बस
एक बूँद रहा

कभी बरस गया
बादल बनकर
कभी रेगिस्तां सा
तपता रहा

थक कर मैं
सो भी गया
पर ख्वाब तो
मुझमें जगता रहा

मैं चलता रहा
हाँ चलता रहा

© इंदर भोले नाथ
बलिया, उत्तर प्रदेश
#6387948060


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