जो कहती थी कभी,इंदर मुझे भुला तो ना दोगे
आज वह गैरों के नाम की मेहंदी रचाए बैठी है
जिसकी यादों के बिन मेरा इक लम्हा भी गुजरा न हो
वो किसी रकिब की खातिर मुझे ही भुलाये बैठी है
तेरे दर पे पूरी मेरी कोई इबादत क्यों नहीं होती
ऐ इश्क़ तेरी रहमत की मुझपे इनायत क्यों नहीं होती
हर मुहल्ला मेरी बदनामी के किस्से सुनाते हैं
के तेरी बेवफाई की भी शिकायत क्यों नहीं
आज वह गैरों के नाम की मेहंदी रचाए बैठी है
जिसकी यादों के बिन मेरा इक लम्हा भी गुजरा न हो
वो किसी रकिब की खातिर मुझे ही भुलाये बैठी है
तेरे दर पे पूरी मेरी कोई इबादत क्यों नहीं होती
ऐ इश्क़ तेरी रहमत की मुझपे इनायत क्यों नहीं होती
हर मुहल्ला मेरी बदनामी के किस्से सुनाते हैं
के तेरी बेवफाई की भी शिकायत क्यों नहीं
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