Tuesday, August 11, 2015

 खुद ही रूठती है वो, खुद ही मान जाती है,
            कभी नज़दीक आ कर के, चली वो दूर जाती है...!
           बड़ी उलझी सी रह कर के, कहीं खोई वो रहती है,
         खुदी से बात करती है, खुदी से रूठ जाती है...!!

#मेरे_अल्फ़ाज़_इंदर

Acct- (IBN_


           हैं वो ना समझ "भगवन",जो तुझे पैसों से रिझावे हैं...
दुआ करोड़ो की माँगे,"चन्द" सिक्के चढ़ावे हैं...
   जिसे ज़रूरत है रोटी की, उसे पानी न पिलावे हैं...
     जो बना है पत्थरों का "इंदर",उसे मेवा ख़िलावे हैं...

#मेरे_अल्फ़ाज़_इंदर
Acct- (IBN_


जितनी बार कोशिस की मैने, क़र्ज़ चुकाना उसका,
पर हर-बार माँ का क़र्ज़, बढ़ता ही गया मुझ पे...!!  

#मेरे_अल्फ़ाज़_इंदर

Acct- (IBN_


                             बैठें इंतेज़ार मे, अब ये इरादा कर के "ऐ-ज़िंदगी", 
होंगे रु-ब-रु तभी तुझसे से ...
        जब दीदार-ए-यार मयस्सर हो....!!

Acct- (IBN)


    कुछ यूँ सीमटे हम तेरी यादों के साये में...!
अब तो हमे खुद की भी सुध ना रही....!!

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                                                          ये नूर-ए-आफताब सा रोशन चेहरा,
                                                          उस पे ये नज़ाकत....!
                                                          न जाने कितने परवाने,
                                                          जले होंगे तेरी महफ़िल मे अब तक...!!

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"वो यादें..........


कल शाम करीब ६:३० बजे होंगे, मैं अकेले बैठा हुआ पुरानी यादों मे खोया हुआ था ! यादों के सागर मे खोए हुए चन्द कतरा याद आ गया !

बात तब की है जब मैं ४ थी, कक्षा मे पढ़ता था, हमारे घर से तकरीबन १ किमी की दूरी पर था, हमारा विद्यालय ! ६-७ गाँव के लड़के-लड़किया पढ़ने आते थें, उस विद्यालय मे, क्योंकि उस एरिया मे वही एक ऐसा विद्यालय था, जिसमे ८ वीं तक कक्षाएँ थी ! और भी प्राइमरी विद्यालय थें, जिनमे ५ वीं तक कक्षाएँ थी !

मार्च का महीना था, शादियों का सीजन चल रहा था ! मैं विद्यालय गया तो एक लड़के ने बताया के उसके गाँव मे आज बरात आ रही है ! जिसमे पर्दा वाला सिनेमा (प्रोजेक्टर) चलेगा,
जी हाँ वो लड़का किसी और गाँव से था,....... वो क्या है न के जब भी मेरे या उसके गाँव मे कोई प्रोग्राम-बरात या किसी प्रकार का उत्सव होता जिसमे (VCP या VCR के द्वारा टीवी पर) फिल्में दिखाई जाती तो मैं उसे या वो मुझे सूचित कर देता !
जब उसने उस दिन बताया के पर्दा वाला सिनेमा चलेगा, तो मैं बहुत ही खुश हुआ क्योंकि पर्दे वाले सिनेमा मे देखने से ऐसा लगता, जैसे सिनेमा हॉल मे बैठ के फिल्म देख रहे हो.....सब कुछ बड़ा-बड़ा सा दिखता,

जैसे ही उसने मुझे बताया मैने अपने ३ दोस्तों को जो मेरे मुहल्ले के ही थें, मेने उनको बताया के आज फलना गाँव मे बरात आ रही है ! जिसमे पर्दा वाला सिनेमा चलेगा, बहुत खुश हुए वो भी ये बात सुनके, उस दिन सारा दिन पढ़ाई मे मन नहीं लगा ! बस ये मना रहे थें, के जल्दी शाम हो जाए ताकि पर्दा वाला सिनेमा देखें ! जैसे -तैसे हमने पढ़ाई की जैसे ही छुट्टी हुई, फिर क्या था, हम चार (मैं और मेरे ३ दोस्त ) खुशी-खुशी घर को आ रहे थें !  सच मे उस दिन बहुत खुश थें, हम अब घर पहुचने वाले थें, तभी मुझे याद आया के बाबूजी उन दीनो घर आए हुए थें, छुट्टी पे !
फिर मेरी सारी खुशी जाती रही, मैं अभी यही सोच रहा था, के मेरे १ दोस्त ने कहा के..... शाम को जल्दी-जल्दी खाना खा लेना, और उसी जगह पे हम चारो मिलेंगे जहाँ हमेशा मिलते हैं !
गाँव से बाहर १ बहुत बड़ा (पाकड़) का पेड़ था, जो बहुत पुराना था, तकरीबन १०० साल पुराना, वहीं हम सब खाना खाने के बाद मिलते थें, अगर कहीं जाना होता तो !
उस दिन भी वहीं मिलने के लिए वो कह रहा था......यार मैं नहीं आ पाउँगा, वो न बाबूजी घर आये हुए हैं ! मैने उन लोगों से कहा.......सब मेरी तरफ देखने लगें.....और कहने लगें के फिर हम भी नहीं जायेंगे!
फिर उनमे से १ ने कहा तो क्या हुआ, हम किसी को बताएँगे ही नहीं, शाम होते ही खाना खाने के बाद निकल जाएँगे.....फिर कल की कल सोचेंगे....क्या हुआ अगर मार भी पड़ी तो फिल्म तो देखने को मिलेगा, वो भी पर्दे वाला सिनेमा पर !
जैसे ही उसने पर्दे वाला सिनेमा का नाम लिया मेरा हौसला भी बढ गया ! फिर क्या था शाम को खाना खाने के बाद हम सभी वहीं मिले, उस पेड़ के पास, फिर वहाँ से चल दिए अपने मिसन (पर्दा वाला सिनेमा) देखने ! जब हम वहाँ पहुचे तो अभी सेटिंग हो रही थी, बहुत सारे लोग बैठे हुए इंतेज़ार कर रहे थें, पर्दा वाला सिनेमा चालू होने का ! हम चारों भी सब से आगे बैठ गये ! ताकि कोई बड़ा आदमी हमारे आगे न बैठे जिससे हमें देखने मे दिक्कत हो.....................
फिल्म स्टार्ट हुआ, बड़े-बड़े अक्षरों मे नाम लिख रहा था, "जुर्माना" जो की मिथुन चक्रवर्ती की फिल्म है ! बड़े खुश हुए हम, क्योंकि मिथुन चक्रवर्ती की फिल्में हमे बहुत अच्छी लगती, उनकी फिल्मों मे मार-धाड़ (एक्सन) ज़्यादा होता है.....
अभीं फिल्म आधी भी न चली होगी, के "बाबूजी" पहुँच गये डंडा लेके, रास्ते मे किसी खेत से अरहर का डंडा मिल गया होगा!
पहुँच के चारों-तरफ देखने लगें, हम तो फिल्म देखने मे मसगुल थें ! हमने ध्यान नहीं दिया उनपे, तभी उनकी नज़र पड़ी मुझपे और फिर क्या था ! मेरे पास आयें, और हाथ पकड़ के बाहर लेकर आयें ! मैं तो हताश सा हो गया, के अब करूँ क्या, डर से कांप सा रहा था ! फिर न पूछो दोस्तों जो मेरी धुलाई वहाँ से शुरू हुई, के घर के नज़दीक आके ख़तम हुई ! रोने भी नही दिया जा रहा था मुझे.....बड़ी जम के पिटाई हुई मेरी घर आने के बाद भी वो तो माँ ने बच लिया ! नहीं तो और भी होती......
सुबह जब दोस्तों ने बताया के फिल्म कितनी मस्त थी, और कितना मज़ा आया उन्हे वो फिल्म देख के !  पूरे रास्ते उसी फिल्म की बातें करते विद्यालय जा रहे थें, ये भी न पूछा मुझसे के रात को कितनी पिटाई हुई तेरी एक शब्द तक नहीं पूछा किसी ने................बड़ा दुख हुआ मुझे "बाबूजी" के मार से नहीं, फिल्म अधूरी रह गई..........इसलिए

क्या वक़्त था वो बचपन का, ना कोई चिंता ना कोई दर्द.....बस हर वक़्त मस्ती मे जिए जाओ.....
काश वो वक़्त,वो बचपन और वो अपने दुबारा फिर से लौट आतें............."काश"  

१०/०८/२०१५ @मेरे_अल्फ़ाज़_इंदर

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