Friday, June 19, 2020

ज़िंदगी तुं बस माया ही रही


ए जिंदगी मैं तेरा
होकर भी तेरा न रहा
मौत की आगोश में
कोई सबेरा न रहा

जिसके हर ईट मे
अरमान पिरोये थें
वो सोने का महल
अब मेरा न रहा

तुं सच नहीं बस
माया ही रही
आत्मा से परे
काया ही रही

तेरे पीछे जब
उमर गंवाई है
तब जाकर हमें
समझ ये आई है

कैद था मैं संसार में
घर में और परिवार में
गुरुर में दिन गुजारे हैं
बस झूठी अहंकार में

वो जल रही धूं-धूं करके
जिसपे खतम ईमान किया
हो बेखबर इस रूह से
जीस बदन पर गुमान किया

आजाद हूँ तेरे
कैद से अब
मुझ पर अब
तेरा पहरा न रहा

ए जिंदगी मैं तेरा
होकर भी तेरा न रहा
मौत की आगोश में
कोई सबेरा न रहा

© इंदर भोले नाथ

मैं हैरान हूँ

मैं हैरान हूं
यह सोच कर
वो चैन से
कैसे सोता है
क्या इस दुर्दशा
को देख कर
उसका जमीर
नहीं रोता है

उसकी आंखों के
सामने कई यातनाएं
कई सितम हुएं
उस मासूम पर

वो नि:शब्द हुए
खामोश रहा
जुल्म होते देखता
रहा उस मजलूम पर

वो रखवाला
बन कर आया था
खुद ही चीरहरण
करने लगा
खुद ही ताले तोड़कर
करोड़ों का गमन
करने लगा

है कंस से ज्यादा
क्रूर वो
रावण से ज्यादा
अभिमानी है
शकुनी सा वो
धूर्त है
दुर्योधन सा अज्ञानी है

एक नहीं कई
रूप हैं उसके
छांव भी उसके
धूप भी उसके

वह नर भी है
मादा भी है
इन सब से
ज्यादा भी है

वो चोर भी है
वो साधु भी
वो सच भी है
वो जादू भी

उसकी करतूतों
की मनमानी है
वो चोर
खानदानी है

है बाप की
सत्ता समझ रहा
बस मजलूमों
पर ही गरज रहा

मैं क्या नाम दूँ?
कई नाम हैं उसके
बस घिनौने
काम हैं उसके

© इंदर भोले नाथ




मृगतृष्णा

मैं चलता रहा


मृगतृष्णा सा हो
चला है मन
न जाने किस
की खोज में
भटक रहा
उपवन उपवन

व्याकुल होकर
आतुर होकर
हर रिश्ते से
जा दूर होकर

मैं चलता रहा
बस चलता रहा
अब नींद से
काफूर हो कर

नगरे नगरे
द्वारे द्वारे
भटक रहा
मारे मारे

अंधियारे से
उजियारे से
कभी छाए बदरा
कारे कारे से

खुद से ही
खुद को ढूंढ रहा
मैं सच से
आंखें मूंद रहा

कभी सागर की
आस जगी मुझको
कभी प्यास बस
एक बूँद रहा

कभी बरस गया
बादल बनकर
कभी रेगिस्तां सा
तपता रहा

थक कर मैं
सो भी गया
पर ख्वाब तो
मुझमें जगता रहा

मैं चलता रहा
हाँ चलता रहा

© इंदर भोले नाथ
बलिया, उत्तर प्रदेश
#6387948060


Monday, June 15, 2020

तुम्हारा  शहर  भी  कुछ-कुछ  मेरे शहर सा है
ऊँची इमारतों के दरमियाँ इक छोटा घर सा है

वही जलन वही द्वेष वही  खलिशपन है देखी
नफरतों के मंजर का यहां भी वही असर सा है

©इंदर भोले नाथ

हम चलते ही रहें बे-हिस हुए
फिर दिल में ना ख्वाहिश हुए

कभी रातों के साये में ढलें
कभी तपती धूप मे हैं जलें

सावन में जलें तपन में हैं गलें
हम हर मौसम चलते ही चलें

बेहिसाब चलें लाजवाब चलें
पन्ने से बन कर किताब चलें

टुटें फिर भी जा़हिर न हुआ
दबाये दिल में हैं अज़ाब चलें

गलियों में चलें शहरों में चलें
फूलों पे चलें पत्थरों पे चलें

आंखों में नमी की न कमी रही
दिल में भी उदासी थमी रही

हम बेबस हो लाचार चलें
हम यार चलें बेशुमार चलें

हम चलते ही रहें चलते ही रहें
रस्ते युं ही कटते ही रहें

खुदा से  दुआ  मांगू  वो भी  तुम्हारे लिए "इंदर"
अरे छोड़ो इससे अच्छा तो हमें मौत ही आ जाये

बे-हद  और  बे-हिसाब  है  ये
जो आँखों में पलते ख़्वाब है ये

बस यादें रही और दर्द रहा
अश्क़ों  से मौसम सर्द रहा

हाँ सबने देखी मुस्कान मेरी
जो अंदर ही अंदर मर्ज़ रहा

उम्मीद रही  कुछ  कर्ज़ रहा
हम निभाते गयें जो फ़र्ज़ रहा

न ख्वाब न कोई तमन्ना थी
न तेरे बाद ही कोई अर्ज़ रहा

जैसे भी हो दिल को भाने लगे हो
तुम आंखों से  नींदे चुराने लगे हो

अब ख्याल तुम्हारा हर घड़ी रहता है
मेरी नफ़स नफ़स में समाने लगे हो

एक हश्र है, एक आह है, दोनों  ही बेपनाह है
तुम छोड़ कर टूट गये, हम तोड़ कर टूट गयें

Tuesday, June 9, 2020

ग़ज़ल

ये कुछ दिनों से खुमारी बढ़ी जो इस क़दर है
क्यूँ जोश में है जवानी, क्यूँ बहेका ये उमर है

क्यूं हो रहे हैं बेखबर हम जमाने की हकीकत से
ये हमको भी पता है, ये तुमको भी खबर है

आशां नहीं है इतना ये जो इश्क की डगर है
है कांटो भरा ये रस्ता बड़ी मुश्किल ये रहगुजर है

मुकम्मल जो हो गया तो, जिंदगी संवर जाएगी
वर्ना जीने नहीं है देता ये जो गमे इश्क का सफर है

कई आशियां है उजड़े कई वीरान हुए घर हैं
है कांटो भरा ये रस्ता बड़ी मुश्किल ये रहगुजर है

कुछ इस कदर हुए हैं हम दोनों एक-दूजे के ऐसे
मैं तुझ में समा गया हूं, तुम मुझ में हुआ बसर है

@ INDER BHOLE NATH
जब डमरू डम डम बोले है
तब  तन  मन मेरा डोले है

तुम हाल न पूछो इंदर का
सब कुछ बम बम भोले है

इक तुम्हारे वास्ते वो क्या-क्या सहती है
तुम्हें सुलाने को रातों को जगती रहती है

तुम व्यर्थ ही मंदिरों के चक्कर लगाते हो
अरे खुद मां के पैरों में ही जन्नत बसती है

जो कहती थी कभी,इंदर मुझे भुला तो ना दोगे
आज वह गैरों के नाम की मेहंदी रचाए बैठी है

जिसकी यादों के बिन मेरा इक लम्हा भी गुजरा न हो
वो किसी रकिब की खातिर मुझे ही भुलाये बैठी है

तेरे दर पे पूरी मेरी कोई इबादत क्यों नहीं होती
ऐ इश्क़ तेरी रहमत की मुझपे इनायत क्यों नहीं होती

हर मुहल्ला मेरी बदनामी के किस्से सुनाते हैं
के तेरी बेवफाई की भी शिकायत क्यों नहीं होती

ये झुठी दर्द और दुहाई बयां करते लोग
गरीबी  से गरीबों को तबाह करते लोग

ये क्या जानें जलती रेत पर नंगे पांव चलने का दर्द
दो रोटी को मोहताज हो कर भूख से मरने का दर्द

कभी निकलो तपती धूप में अपने बच्चों के साथ
तुम भी गुजारो कभी  रेल की पटरी पर इक रात

ए.सी में बैठे बैठे तुमने हमारा दर्द महसूस कर लिया
हमें खबर भी नहीं और तुमने हमें महफूज कर लिया

हमारे दर्द सुना कर तुम कुछ आह भर गये
वो सुने तुम्हारे शब्द और कई वाह कर गये

क्या फर्क पड़ा तुम्हारे सुनने और सुनाने से
फिर भी तो हमारे जैसे कई बेगुनाह मर गये

किसी की पूजा है अधुरी किसी को नमाज़ की फिकर
वहां कई बेघर हो भूख से मर गये, यहाँ किसको खबर है

ये  हवा  जब  तुम्हारी  खुशबू लाये
जोश ए जुनूँ  बदन  में  हरसू  लाये

न  ज़ोर  चले  न इस पे काबू आये
दिल  को बस तेरी ही आरजू आये

न ख्याल न ज़िक्र किसीका हो अब
लबों  पे  बस  तेरा ही गुफ्तगू आये

दर बदर फिरू के गुमनाम हो जाऊं
युँ इस क़दर नशा तेरी जुस्तज़ू लाये

©इंदर भोले नाथ

मेरी हर ग़ज़ल मे तो ज़िक्र तेरा ही होता है
हाँ ये अलग बात है के तेरा नाम नहीं होता

©इंदर भोले नाथ

मेरे  इश्क़ की  और  इंतेहाँ  क्या है
मेरी खुदी पूछती है मेरा पता क्या है

के   तेरे   बाद   कोई  असर  तो  रहे
मेरे  दिल  में  यादों  की  बसर तो रहे

मेरी  हर  शाम  गुजरे  इसी उम्मीद मे
के  तेरे  आने  की  कोई खबर तो रहे

तुमने  जो भुला दिये कहानी की तरह
किसी ने उसे रखा है निशानी की तरह

इस  जहाँ से परे कोई बे-खबर तो रहे
प्यासा कहीं गुमनाम इक शजर तो रहे

© इंदर भोले नाथ

सहर  ढूँढता  और  रात जागती रही मेरी
के तेरी तलाश में ज़िंदगी भागती रही मेरी

#इंदरभोलेनाथ
@InderBhole

ये शाम फिर वही पहचानी सी है
आंखों में फिर वही कहानी सी है

रोज खामोशियों में गुजरते हैं पल
दास्तां इश्क़ की वही पुरानी सी है

ये शाम फिर.....

तुं मुझ में है  या  तुझ में हूँ मैं
आज तक ये समझ पायें न हम

खामोशी है या जुबानी सी है
मुझ में तेरी कोई निशानी सी है

ये शाम फिर........

अधूरे स्वप्न कुछ तुम्हारे भी हैं
ख्वाहिशें कुछ अधूरी हमारी भी है

तेरे दिल में भी हलचल तूफानी सी है
मेरी आँखों मे भी थोड़ी पानी सी है

ये शाम फिर.....

इक आस है, जो खास है
आँखों में  इक नमी सी है

हाँ मैं मुकम्मल हूँ लेकिन
कहीं तो कुछ कमी सी है

कोई तो है जो न गुजरा है
मुझमें अब भी वो ठहरा है

मैं उसे जुदा कर भी देता,वो
जीने के लिये लाज़मी सी है

लगे ज़ख़्म भी मिटा दियें तुम्हारे खत भी जला दियें
फिर भी पुछता है दिल क्या मैंने......तुम्हें भुला दियें
जो कहती थी कभी,इंदर मुझे भुला तो ना दोगे
आज वह गैरों के नाम की मेहंदी रचाए बैठी है

जिसकी यादों के बिन मेरा इक लम्हा भी गुजरा न हो
वो किसी रकिब की खातिर मुझे ही भुलाये बैठी है

तेरे दर पे पूरी मेरी कोई इबादत क्यों नहीं होती
ऐ इश्क़ तेरी रहमत की मुझपे इनायत क्यों नहीं होती

हर मुहल्ला मेरी बदनामी के किस्से सुनाते हैं
के तेरी बेवफाई की भी शिकायत क्यों नहीं
ये झुठी दर्द और दुहाई बयां करते लोग
गरीबी  से गरीबों को तबाह करते लोग

ये क्या जानें जलती रेत पर नंगे पांव चलने का दर्द
दो रोटी को मोहताज हो कर भूख से मरने का दर्द

कभी निकलो तपती धूप में अपने बच्चों के साथ
तुम भी गुजारो कभी  रेल की पटरी पर इक रात

ए.सी में बैठे बैठे तुमने हमारा दर्द महसूस कर लिया
हमें खबर भी नहीं और तुमने हमें महफूज कर लिया

हमारे दर्द सुना कर तुम कुछ आह भर गये
वो सुने तुम्हारे शब्द और कई वाह कर गये

क्या फर्क पड़ा तुम्हारे सुनने और सुनाने से
फिर भी तो हमारे जैसे कई बेगुनाह मर गये

किसी की पूजा है अधुरी किसी को नमाज़ की फिकर
वहां कई बेघर हो भूख से मर गये, यहाँ किसको खबर है