Monday, May 17, 2021

गिरते  संभलते  कदमों  के  थकान कह रहे हैं
घर घर नहीं रहा,लौट जाओ, मकान कह रहे हैं

कोई पहले भी गुजरा है यहाँ से मुझ-सा बे-घर हुआ
ये   रास्ते  मे  पड़े हुए सामान  कह  रहे हैं

दीवाली मे तेल ब्यर्थ,होली मे गुलाल है ब्यर्थ होता
ऐसा  नये  जमाने के  नये  इंसान कह रहे हैं

कभी, दो रोटी भी न दी किसी ग़रीब को, लेकिन 
वो  लोग भी खुद को अब  भगवान कह रहे हैं

एक उँची जाति की अस्थियाँ एक शूद्र से जा मिली
ये  आँखों  देखा  हाल  श्मशान  कह  रहे हैं 

वो दुआ है रोज करतें कोई अर्थी उस गली से न गुज़रे
ये  बात कफ़न बेचने  वाले  दुकान कह रहे हैं 

- इंदर भोले नाथ