Saturday, January 26, 2019

गज़ल

कागज़ की कश्ती बनाके समंदर में उतारा था
हमने भी कभी ज़िंदगी बादशाहों सा गुजारा था,

बर्तन में पानी रख के ,बैठ घंटों उसे निहारा था
फ़लक के चाँद को जब, जमीं पे उतारा था,

न तेरा था न मेरा था हर चीज़ पे हक हमारा था
मासूम सा दिल जब कोरे कागज़ सा हमारा था,

बे-पनाह सी उमंगें थी,कई मंज़िल कई किनारा था
अब तन्हा जी रहे हैं हम तब महफ़िलों का सहारा था,

………..इंदर भोले नाथ.………..

गज़ल

जुड़ती रहे कड़ी से कड़ी हर लम्हा एहसासों का
चलता रहे सिलसिला यूँही मुलाकातों का....

रु ब रु तुम हो न हो, रहे जिक्र तुम्हारी यादों का
चलता रहे सिलसिला यूँही मुलाकातों का....

ख्वाब लिए इन आँखों में रोज गुजरती रातों का
लौ जैसी जलती बुझती सुलग रही जज्बातों का

कोई गिला नहीं तुमसे "इन्दर",है ऐतबार तुम्हारे वादों का
चलता रहे सिलसिला यूँही मुलाकातों का...

"इन्दर भोले नाथ"

मेरी शायरी...

आज ढ़ुढ़ते हो हमें फ़लक के सितारों में
कल नूर- ए - जमीं थे तब कद्र नहीं किये....

गज़ल

जाति मजहब के नाम पर हर रोज लुटते देखा है
इस सोने की चिड़िया को हर रोज टुटते देखा है

है देश कि अब परवाह किसे, कौन देश का अब गुणगान करे
जो खुद का ईज्जत निलाम किया, वो देश का क्या सम्मान करे

पागल थें वो दिवाने जो देश पे बलिदान हुए
मिट सी गई हस्ती उनकी, गुमनाम वो ईमान हुए

वो मसहूर हुए कुछ इस कदर, हर तरफ उन्ही का नाम है
जो देश के टुकड़े कियें, देश उन्ही का गुलाम है

मेरी शायरी...

इक तुहीं नहीं "इंदर" दिवाना उस कली का,
कल गुजरे जो गली से उनके,दिवान- ए- महफ़िल सजी मिली....

मैं बह गया क़तरा क़तरा...

मैं बह गया क़तरा क़तरा, मैं टुटा जा़र जा़र सा,
ये मेरी वफ़ा का ईनाम है, तेरी बेवफाई वजह नहीं...