Saturday, July 11, 2020

कविता

अब म्यान मे लिपटी हुई मुझे शमशीर रहने दो
कुछ वक़्त के लिए सही मुझे बे-पीर रहने दो

बहोत विभत्स हो चुका हूँ खुद से ही लड़कर मैं
खामखाँ जन्नत कहने वालों मुझे कश्मीर ही रहने दो

अब म्यान मे लिपटी हुई......

हर वक़्त  मेरे जख्म  मुझे  पुकारते  हैं अब
मेरे जन्नत कहाने पर मुझे धिक्कारते हैं अब

मैने जहन्नुम सा अब  खुद का तस्वीर देखा है
चित्थड़ों मे  बिखरा  हुआ  कई शरीर देखा है

सुर्ख आँखों से खुशी के मेरे  अब  नीर बहने दो
खामखाँ जन्नत कहने वालों मुझे कश्मीर ही रहने दो

अब म्यान मे लिपटी हुई......

कभी  धर्म के  नाम पर  खदेड़ा गया हूँ मैं
कभी मजहब की आड़ में उधेड़ा गया हूँ मैं

मैं कौन हूँ कहाँ हूँ मैं,कइ टुकड़ों में बंटा हूँ मैं
अब सियासत की भूख मे हो गया फन्ना हूँ मैं

बहोत जिल्लत उठा चुका हूँ अब गम्भीर रहने दो
खामखाँ जन्नत कहने वालों मुझे कश्मीर ही रहने दो

अब म्यान मे लिपटी हुई मुझे शमशीर रहने दो
कुछ वक़्त के लिए सही मुझे बे-पीर रहने दो

बहोत विभत्स हो चुका हूँ खुद से ही लड़कर मैं
खामखाँ जन्नत कहने वालों मुझे कश्मीर ही रहने दो

ग़ज़ल

सबसे अलग और सबसे जुदा लिखता
तुम शब्द होती तो तुम्हें मैं बेइंतेहां लिखता

हर शाम लिखता हर सहर लिखता
बस इक तुम्हें ही मैं हर पहर लिखता

हर पन्ने पर सजी तुम कई किताब होती
तुम मुझ में बे-हद और बे-हिसाब होती

कभी तुम्हें गुल तो कभी गुलिश्तां लिखता
तुम शब्द होती तो तुम्हें मैं बेइंतेहां लिखता

हर नज्म हर गजल से तेरी ही खुश्बू आती
हर हर्फ़ में मेरे तुम, कुछ यूं रवां हो जाती

हर किस्से कहानियों में, मेरी जुबानियों मे
सिर्फ़ तुम्ही बसर करती मेरी निशानियों मे

कभी महबूब तो तुम्हें कभी खुदा लिखता
तुम शब्द होती तो तुम्हें मैं बेइंतेहां लिखता

© इंदर भोले नाथ
#6387948060
बलिया, उत्तर प्रदेश