आप का नाम भी बहुत हुजूर हो रहा है
मुहल्ले से निकल के अब दूर दूर हो रहा है
मुहल्ले से निकल के अब दूर दूर हो रहा है
गज़ब का दर्द है उसकी अल्फाज़ मे इंदर
इक शायर शहर मे बहुत मसहूर हो रहा है
इक शायर शहर मे बहुत मसहूर हो रहा है
ना पाबंदी लगाओ यारों उसे उड़ान भरने दो
जो परिंदा छुट के क़फ़स से दूर हो रहा है
जो परिंदा छुट के क़फ़स से दूर हो रहा है
वो खुश है तो फिर क्यों गुमनाम हो चला है
कोई दर्द बेच कर भी मसहूर हो रहा है
कोई दर्द बेच कर भी मसहूर हो रहा है
©® इंदर भोले नाथ
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