Saturday, January 26, 2019

गज़ल

कागज़ की कश्ती बनाके समंदर में उतारा था
हमने भी कभी ज़िंदगी बादशाहों सा गुजारा था,

बर्तन में पानी रख के ,बैठ घंटों उसे निहारा था
फ़लक के चाँद को जब, जमीं पे उतारा था,

न तेरा था न मेरा था हर चीज़ पे हक हमारा था
मासूम सा दिल जब कोरे कागज़ सा हमारा था,

बे-पनाह सी उमंगें थी,कई मंज़िल कई किनारा था
अब तन्हा जी रहे हैं हम तब महफ़िलों का सहारा था,

………..इंदर भोले नाथ.………..

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