थी रातें भी विरान सी के शहर भी सुनशान था ये मुसाफिर को न इल्म थी तेरी यादों का एहसान था
इक नज़्म मै कहता रहा खामोश रात सुनता रहा होगी सहर तेरे दीदार से निगाह ख्वाब बुनता रहा
हाँ रह रह के मैं डरा भी था तिल तिल कर मरा भी था कभी आसमां सा फैल गया कभी तिनका सा जरा भी था
के तारे भी ताकते रहें हाँ चाँद भी खामोश था बस इक मैं जागता रहा सारा जहाँ बेहोश था
हाँ पुष की वो रात थी पसीनों की बरसात थी थें बूँद बूँद हम पिघल रहें बरसों की जो मुलाकात थी
दबे अरमान फूल सा खिलने को मन ब्याकुल था तुमसे मिलने को
तुम आये भी ऐसे वक़्त पे, जब जान हलक से था, निकलने को
बस धड़कनों का शोर था तुम्हारे मिलन से मन बिभोर था
मैं खुद को रोक लेता, मगर
गुजरते वक़्त पे कहाँ जोर था
©इंदर भोले नाथ
बागी बलिया, उत्तर प्रदेश
इक नज़्म मै कहता रहा खामोश रात सुनता रहा होगी सहर तेरे दीदार से निगाह ख्वाब बुनता रहा
हाँ रह रह के मैं डरा भी था तिल तिल कर मरा भी था कभी आसमां सा फैल गया कभी तिनका सा जरा भी था
के तारे भी ताकते रहें हाँ चाँद भी खामोश था बस इक मैं जागता रहा सारा जहाँ बेहोश था
हाँ पुष की वो रात थी पसीनों की बरसात थी थें बूँद बूँद हम पिघल रहें बरसों की जो मुलाकात थी
दबे अरमान फूल सा खिलने को मन ब्याकुल था तुमसे मिलने को
तुम आये भी ऐसे वक़्त पे, जब जान हलक से था, निकलने को
बस धड़कनों का शोर था तुम्हारे मिलन से मन बिभोर था
मैं खुद को रोक लेता, मगर
गुजरते वक़्त पे कहाँ जोर था
©इंदर भोले नाथ
बागी बलिया, उत्तर प्रदेश