"बागवानी"
जो विष फैली है हवाओं में वो, रग रग में बस जानी है
कुछ इस क़दर अशुद्ध हुएं हैं, कण कण और पानी है
इक वक़्त ऐसा आयेगा, श्वास लेना भी दूभर हो जायेगा
कटती गिरती हरियाली की हर आह कि सुनी कहानी है
जो विष फैली है हवाओं में................................
ऊँची इमारतों की भूख में, तुम इस क़दर हो चूर हुए
जो ज़िंदगी है हम सब की, उसे काटने को मजबूर हुए
गुरुर ओ दम्भ तुम्हारी चूर करेगी, मन में उसने ठानी है
बस बाग नहीं,ये ज़िंदगी है,ये जो उजड़ रही बागवानी है
जो विष फैली है हवाओं में, वो रग रग में बस जानी है
कुछ इस क़दर अशुद्ध हुएं हैं, कण कण और पानी है
©इंदर भोले नाथ
जो विष फैली है हवाओं में वो, रग रग में बस जानी है
कुछ इस क़दर अशुद्ध हुएं हैं, कण कण और पानी है
इक वक़्त ऐसा आयेगा, श्वास लेना भी दूभर हो जायेगा
कटती गिरती हरियाली की हर आह कि सुनी कहानी है
जो विष फैली है हवाओं में................................
ऊँची इमारतों की भूख में, तुम इस क़दर हो चूर हुए
जो ज़िंदगी है हम सब की, उसे काटने को मजबूर हुए
गुरुर ओ दम्भ तुम्हारी चूर करेगी, मन में उसने ठानी है
बस बाग नहीं,ये ज़िंदगी है,ये जो उजड़ रही बागवानी है
जो विष फैली है हवाओं में, वो रग रग में बस जानी है
कुछ इस क़दर अशुद्ध हुएं हैं, कण कण और पानी है
©इंदर भोले नाथ